महाभारत की कथा की सबसे बड़ी विडंबना आज यह बन चुकी है कि, इसे महज कौरव-पांडव के बीच हुए भीषण युद्ध की कथा समझा जाता है. अधिक से अधिक इस महागाथा की प्रसिद्धि भगवान श्रीकृ्ष्ण के उस गीता ज्ञान को लेकर है, जिसे उन्होंने युद्धभूमि के बीच खड़े होकर निराश हो चुके अर्जुन को दिया था. महर्षि वेदव्यास रचित इस महागाथा को किसी विवाद से उपजी समस्या का ब्यौरा भर नहीं समझना चाहिए, बल्कि यह कथा युग-युगांतर से हुए अलग-अलग लोगों के कर्मों का परिणाम बताती है. इसलिए इसे कर्म का ज्ञान और कर्म का परिणाम भी कहा जाता है.
सही मायने में मुनिवर व्यास ने इसकी रचना की भी इसी उद्देश्य से थी कि संसार कर्म के महत्व को समझ सके और पाप-पुण्य की जिस अवधारणा को वह आस्था और श्रद्धा के नाम पर यज्ञ-पूजा, ध्यान, हवन और तप-साधना की परिभाषा देता आया है, वह जान सके कि इनका संबंध कर्म से दूर-दूर तक नहीं है, बल्कि कर्म तो किसी अन्य के हित में किए खुद के त्याग को पुण्य बताता है, पाप वो कर्म हैं, जिनसे किसी को रत्ती भर भी कष्ट पहुंचे.
अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम्,
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम्।।
कर्म की इसी अवधारणा को समझकर पिता की हत्या से क्रोधित और दुखी जनमेजय ने आस्तीक मुनि के निवेदन पर नागयज्ञ को तो बंद करा दिया, लेकिन उसका शोक अभी भी उसे खाये जा रहा था. वह उस शोक से बाहर नहीं आ पा रहा था. उसकी स्थिति ठीक वैसी ही हो गई थी, जैसे 18 दिन के महायुद्ध को जीतने के बाद सिंहासन पर विराजे शोकाकुल महाराज युधिष्ठिर...
जनमेजय की इस अवस्था को देखकर महामुनि व्यास ने उसे सांत्वना दी और उसके पूर्वजों युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, अभिमन्यु, पितामह भीष्म आदि का जिक्र किया. तब राजा जनमेजय ने हाथ जोड़कर द्विजश्रेष्ठ व्यासजी से कहा- ब्रह्मन्! आप मेरे पूर्वज कौरवों और पाण्डवों को प्रत्यक्ष देख चुके हैं. इसलिए मैं आपके द्वारा वर्णित उनके चरित्र को सुनना चाहता हूं. वे तो रोग-द्वेष आदि दोषों से रहित सत्कर्म करने वाले थे, फिर उनमें ये द्वेष करने वाली बुद्धि कैसे उत्पन्न हुई? इसके साथ ही यह भी बताइए कि असंख्य-अनगिनत प्राणियों का अंत करने वाला उनका वह महायुद्ध किस प्रकार हुआ? आप उनके इस वृत्तांत का वैसा ही आंखों-देखा वर्णन करें.
हस्तिनापुर का यह प्रसंग बताकर नैमिषारण्य में 12 हजार ऋषियों सहित शौनक ऋषि को महाभारत की कथा सुना रहे उग्रश्रवाजी ने कहा- जनमेजय की यह बात सुनकर श्रीकृष्णद्वैयापन व्यास ने पास ही बैठे अपने शिष्य वैशम्पायन को आदेश दिया कि वह राजा जनमेजय को उनकी लिखी महाभारत की कथा सुनाएं और उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए पांडव वंशी जनमेजय का शोक दूर करें.
यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि, सौतिकुल भूषण उग्रश्रवा जी नैमिषारण्य में ऋषियों को महाभारत की कथा जस की तस वैसी ही सुना रहे थे, जैसी वह हस्तिनापुर में राजा जनमेजय के नागयज्ञ में व्यास मुनि के शिष्य वैशंपायन जी से सुनकर आए थे. इसलिए आगे इस कथा में कई जगहों पर ऋषि वैशंपायन का ही नाम आएगा, क्योंकि उग्रश्रवा जी उनके मुख से सुनी कथा ही ऋषियों को सुना रहे थे, जो राजा जनमेजय ने वैशंपायन जी से सुनीं. यानी कहानी के भीतर एक के बाद एक सूत्रधार हैं. इसलिए भ्रमित (कनफ्यूज) नहीं होना है.
खैर, वैशंपायन जी ने व्यास जी से आदेश और आशीर्वाद लेकर राजा जनमेजय को यह कथा सुनाना शुरू किया. उन्होंने कहा- गुरुदेव महामुनि व्यासजी ने पुण्यात्मा पाण्डवों की यह कथा एक लाख श्लोकों में कही है. जो विद्वान् इस आख्यान को सुनाता है और जो मनुष्य सुनते हैं, उन्हें ब्रह्मलोक में देवताओं का पद मिलता है. यह वेदों के समान ही पवित्र तथा उत्तम है. इसमें अर्थ और धर्म का पूर्ण उपदेश है. इस परम पावन इतिहास से मोक्ष की भी प्राप्ति संभव है. इस इतिहास को सुनकर बहुत क्रूर मनुष्य भी राहु से छूटे हुए चंद्रमा की ही तरह पापों से मुक्त हो जाता है. यह ‘जय’ नामक इतिहास विजय की इच्छा वाले पुरुष को जरूर सुनना चाहिये. इसका श्रवण करने वाला राजा भूमि पर विजय पाता और सब शत्रुओं को परास्त कर देता है. यह पुत्र की प्राप्ति कराने वाला और महान मंगलकारी श्रेष्ठ साधन है.
जो ब्राह्मण नियम पूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वर्षा के चार महीने तक निरन्तर इस पुण्यप्रद महाभारत का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है, साथ ही उसे सम्पूर्ण वेदों में पारंगत ज्ञानी मानना चाहिए. इस ग्रन्थ में भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन है, भगवान शिव और देवी पार्वती का वर्णन है, ब्राह्मणों तथा गौओं के माहात्म्य का निरुपण भी इस ग्रन्थ में किया गया है. इस प्रकार यह महाभारत सम्पूर्ण श्रुतियों का समूह है. इस महाभारत में महात्मा राजर्षियों के विभिन्न प्रकार के जन्मों के प्रसंगों का वर्णन है. इस ग्रन्थ में विचित्र युद्वों का वर्णन तथा राजाओं के अभ्युदय की भी कथा है.
इसमें भरतवंशियों के महान जन्म और जीवन का वर्णन है, इसलिये इसको ‘महाभारत’ कहते हैं. जो महाभारत नाम का यह निरुक्त (व्युत्पत्तियुक्त अर्थ) जानता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है. मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी प्रति-दिन प्रात:काल उठकर स्नान-संध्या आदि से शुद्ध हो आदि से ही महाभारत की रचना करते थे. महर्षि ने तपस्या और नियम का आश्रय लेकर तीन सालों में इस ग्रन्थ को पूरा किया है. इसलिये ब्राह्मणों को भी नियम में स्थिर होकर ही इस कथा का श्रवण करना चाहिये. यह महाभारत वेदों के समान पवित्र और उत्तम है. यह सुनने योग्य तो है ही, सुनते समय कानों को सुख देने वाला भी है.
राजन् ! जो वाचक को यह महाभारत दान करता है, उसके द्वारा समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी का दान सम्पन्न हो जाता है. जनमेजय ! मेरे द्वारा कही हुई इस आनंद दायिनी दिव्य कथा को तुम पुण्य और विजय की प्राप्ति के लिये पूर्णरूप से सुनो. भरतश्रेष्ठ ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के संबंध में जो बात इस ग्रन्थ में है, वही किसी और या कहीं और नही हैं. जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है.
उग्रश्रवा जी बोले- ऋषि वैशंपायन के मुख से महाभारत की इतनी बड़ाई और इसके महान लेखक महामुनि वेदव्यास का इतना सुंदर आख्यान सुनकर राजा जनमेजय से रहा नहीं गया और वह बोले- हे ऋषिश्रेष्ठ वैशंपायन मुनि. मैं आपसे महाभारत की कथा विस्तार से सुनने के लिए उत्सुक हो रहा हूं, लेकिन अब मेरी उत्कंठा (बड़ी इच्छा) है कि मैं पहले महामुनि व्यास के जन्म या प्रकटीकरण की ही कथा सुनूं. आप मुझे बताएं कि महामुनि व्यास जी का प्राकट्य (अथवा जन्म) कैसे हुआ, मुझे उनके जीवन का भी परिचय दीजिए.
यह सुनकर ऋषि वैशंपायन मुस्कुराए और महामुनि व्यास को एक बार फिर प्रणाम करते हुए बोले- महाराज जनमेजय! मेरी कथा की शुरुआत तो वैसे भी गुरुदेव के जीवन प्रसंग से ही होने वाली थी, आप न भी कहते तो मैं यह कथा, गुरुवंदना के तौर पर सुनाता. अच्छा- अब आप यह कथा और रहस्य सुनिए की महामुनि व्यास का जन्म कैसे हुआ? प्राचीन काल में एक बड़े ही धर्मात्मा राजा थे उपरिचर. उनका नाम वसुश्रेष्ठ था, लेकिन उनके धर्म, शील और तप के प्रभाव के कारण उनका रथ विमान की तरह आकाश मार्ग से चलता था, इसलिए वह राजा उपरिचर कहलाए. एक बार राजा उपरिचर ने वन में इतना कठोर तप किया कि देवताओं ने उन्हें तपोनिधि की उपाधि दी और फिर देवराज इंद्र की आज्ञा से वह राजा के सामने प्रकट हुए. असल में इंद्र ने उन्हें इसलिए भेजा ताकि यह राजा अपनी तपस्या के बल पर इंद्र पद का अधिकारी न बन जाए.
तब देवताओं ने प्रकट होकर राजा की बड़ी प्रशंसा की. राजा ने भी उनका सत्कार किया. तब इंद्र भी प्रकट हुए और सभी देवताओं के साथ राजा से कहा- हे राजन! तुम्हें तपस्या में नहीं पड़ना चाहिए और अपने धर्म और शील के साथ राज्य करते हुए प्रजा की रक्षा और सेवा करनी चाहिए. तुम्हारे न रहने से अराजकता फैलने का भय है, जिससे प्रजा स्वधर्म में स्थिर नहीं रह सकेगी. तुम्हें तपस्या न करके इस वसुधा का संरक्षण करना चाहिये.
इस तरह देवताओं ने उपरिचर को चेदि देश का राजा बना दिया और स्फटिक मणि का बना हुआ एक दिव्य, आकाशचारी विशाल विमान भेंट किया. इंद्र ने उन्हें वैजयन्ती माला भी दी और राजा को उपहार स्वरूप बांस की एक छड़ी दी, जो शिष्ट पुरुषों की रक्षा करने वाली थी. एक वर्ष बीतने पर भूपाल वसु उपरिचर ने इंद्र की पूजा के लिये उस छड़ी को भूमि में गाड़ दिया. वैशंपायन जी ने कहा- राजन् ! तब से लेकर आज तक श्रेष्ठ राजाओं द्वारा छड़ी धरती में गाड़ी जाती है और इसे ही संवत्सर कहते हैं. यह एक वर्ष का अंतराल होता है. वसुने जो प्रथा चली दी, वह अब तक चली आती है.
नवीन संवत्सर के प्रथम दिन प्रतिपदा को वह छड़ी निकालकर बहुत ऊंचे स्थान पर रखी जाती है. फिर कपड़े की पेटी, चन्दन, माला और आभूषणों से उसको सजाया जाता है. उसमें विधिपूर्वक फूलों के हार और सूत लपेटे जाते हैं. इसी छड़ी पर हंस रूप में देवराज इंद्र की पूजा होती है. इंद्र की प्रसन्नता के लिये चेदिराज वसु (राजा उपरिचर) प्रति वर्ष इन्द्रोत्सव मनाया करते थे. उनके अनंत बलशाली महापराक्रमी पांच पुत्र थे. सम्राट वसु ने विभिन्न राज्यों पर अपने पुत्रों का अभिषेक कर दिया. उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का विख्यात राजा हुआ. दूसरे पुत्र का नाम प्रत्यग्रह था, तीसरा कुशाम्ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं. चौथा मावेल्ल था और पांचवां राजकुमार यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था.
राजा जनमेजय ! महा तेजस्वी राजर्षि वसु की राजधानी के समीप ‘शुक्तिमती नदी’ बहती थी. एक समय कोलाहल नाम के एक सचेतन पर्वत ने कामवश नदी को रोक लिया. उसके रोकने से नदी की धारा रुक गयी. यह देख उपरिचर वसु ने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार किया. इससे तुरंत ही पर्वत में दरार पड़ गयी, जिससे निकलकर वह नदी पहले की ही तरह बहने लगी. पर्वत ने नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या, यानी दो जुड़वां संतान उत्पन्न की थी. राजा उपरिचर से प्रसन्न नदी ने अपनी दोनों संतानें उन्हें सौंप दीं.
राजा ने उस नदी से उत्पन्न पुत्र को अपना सेनापति बना लिया और नदी ने जिस कन्या ‘गिरिका’ का दान राजा को किया था, राजा उसे अपनी पत्नी बनाकर सम्मान से राजधानी ले आए. समय बीता. एक दिन रानी गिरिका ने संतान प्राप्ति की इच्छा से राजा से प्रणय निवेदन किया. राजा ने उनकी बात स्वीकार की और जल्द ही ऋतुकाल (मासिक धर्म के बाद गर्भधारण का अनुकूल समय) आने पर गर्भाधान का निश्चय किया.
इसी बीच राजा को राज्य में हिंसक पशुओं के उत्पात की सूचना मिली. राजा उनका वध करने के लिए निकल गए. सौभाग्य से वह समय वन और प्रकृति के लिए भी ऋतुकाल (वसंत का समय) ही था. वसंत का समय था, अशोक ,चम्पा, माधवीलता, नागकेसर, कनेर, मौलसिरी, दिव्यपाटल,चंदन और अर्जुन – ये स्वादिष्ट फूलों-फलों से युक्त पवित्र महावृक्ष उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे. कोयलों का सुर लुभा रहा था. झरनों-तालों से कल-कल की ध्वनि आ रही थी.
यह सब देखकर राजा काम भावना से पीड़ित हो उठा और एक वृक्ष के नीचे विश्राम करते हुए स्त्री की इच्छा और विचार करने वाले राजा का वीर्य स्खलित हो गया. उसके स्खलित होते ही राजा ने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्यर्थ न जाए, उसे पत्ते पर उठा लिया. उन्हें पत्नी गिरिका के ऋतुकाल का ध्यान आया. तब राजा ने एक बाज पक्षी को बुलाकर अपना वीर्य रानी तक ले जाने के लिए कहा. बाज वह वीर्य लेकर बड़े वेग से उड़ चला.
इधर, जब वह बाज आकाश मार्ग से जा रहा था तब एक और बाज ने उसके मुख में मांस समझकर झपट्टा मारा. इससे बाज के मुख से छूटकर वह वीर्य यमुना नदी में जाकर गिर गया. यमुना जी के जल में आद्रिका नाम की एक अप्सरा किसी पुराने श्राप के कारण मछली बनकर रह रही थी. बाज के पंजे से छूटकर गिरा हुए राजा उपरिचर वसु का वह वीर्य आद्रिका अप्सरा रूपी मछली ने निगल लिया. वैशंपायन जी कहते हैं कि भरतश्रेष्ठ ! इसके बाद दसवां मांस आने पर एक दिन मल्लाहों ने यमुना जी में जाला डाला तो उसमें यह बड़ी मछली भी आ फंसी. मल्लाहों ने उसके उदर को चीरा तो एक कन्या और एक पुरुष निकाला. यह आश्चर्यजनक घटना देखकर मछुआरों ने राजा के पास जाकर निवेदन किया- ‘महाराज ! मछली के पेट से ये दो मनुष्य नवजात उत्पन्न हुए हैं’.
मछेरों की बात सुनकर राजा उपरिचर ने उस समय उन दोनों बच्चों में से जो पुरुष था, उसे स्वयं ग्रहण कर लिया. उसका नाम हुआ मत्स्य, जो आगे चलकर धर्मात्मा राजा हुआ. इधर वह अप्सरा अद्रिका क्षण भर में शापमुक्त हो गयी. भगवान् ब्रह्माजी ने पहले ही उससे कह दिया था कि ‘तुम दो मानव-संतानों को जन्म देकर शाप से छूट जाओगी.’ आद्रिका फिर से स्वर्ग चली गई. अब जो पुत्री बची थी, मछली की पुत्री होने से उसके शरीर से मछली की गंध आती थी. राजा ने उसे मल्लाह को सौंप दिया और कहा- ‘यह तेरी पुत्री होकर रहे.’.
वह रूप और सत्व (सत्य) से संयुक्त तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न होने के कारण ‘सत्यवती’ नाम से प्रसिद्व हुई. मछेरों के आश्रय में रहने के कारण वह पवित्र मुस्कान वाली कन्या मत्स्य गंधा भी कहलाई. वह देवी पिता की सेवा के लिये यमुना जी के जल में नाव चलाया करती थीं. एक दिन तीर्थयात्रा के उद्देश्य से सब ओर विचरने वाले महर्षि पराशर ने उनकी नाव में बैठकर नदी पार की.
वह अतिशय रूप सौन्दर्य से सुशोभित थी. सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी. उस दिव्य वसु कुमारी को देखकर मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्छा प्रकट की और कहा- कल्याणी ! मेरे साथ संगम करो. वह बोली- भगवन्! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ॠषि खड़े हैं और हम दोनों को देख रहे हैं.
ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है?’ इसके साथ ही आपके संयोग से मेरा कौमार्य भंग हो जाएगा. मैं पिता के अधीन कन्या हूं और इसके बाद मैं कैसे अपने घर जा सकूंगी और कलंकित होकर मैं जी नहीं सकती. अब आपका क्या विचार होना चाहिए? यह सब सुनकर पाराशर मुनि ने यमुना के बीच एक द्वीप पर कुहरे जैसी स्थिति बना दी और फिर बोले- मुझसे समागम के बाद भी तुम कन्या ही रहोगी. तुम मुझसे जो वरदान मांगोगी वह भी फलित हो जाएगा. ऐसा कहने पर सत्यवती ने महर्षि पराशर से वरदान मांगा कि मेरे शरीर से उत्तम सुगंध आए. तब ऋषि पराशर ने सत्यवती से आने वाली मछली की गंध को शीतल चंदन वाली गंध में बदल दिया.
वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवती ने महर्षि पराशर के साथ समागम किया. उसके शरीर से उत्तम गंध फैलने के कारण पृथ्वी पर उसका नाम गंधवती और सुगंधा हो गया. एक योजन तक उसकी दिव्य सुगंध फैलती थी, इसलिए उसका दूसरा नाम योजनगंधा भी पड़ा. महर्षि पराशर का संयोग प्राप्त कर सत्यवती ने तत्काल ही एक शिशु को जन्म दिया और इस तरह यमुना के द्वीप में पराशरनन्दन व्यास प्रकट हुए. वह शीघ्र ही बड़े हो गए और उन्होंने माता से यह कहा- ‘आवश्यकता पड़ने पर तुम मेरा स्मरण करना. मैं अवश्य दर्शन दूंगा.’
इतना कहकर माता की आज्ञा ले व्यासजी ने तपस्या में ही मन लगाया. इस प्रकार महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से द्वैपायन व्यासजी का जन्म हुआ. द्वीप में जन्म लेने के कारण वह कृष्ण द्वैपायन कहलाए. यही महामुनि व्यासजी के जन्म की पवित्र कथा है. महर्षि वैशंपायन के मुख से महामुनि व्यास की यह कथा सुनकर राजा जनमेजय बहुत विभोर हो गए और उन्होंने बार-बार महामुनि व्यास को प्रणाम किया. वैशंपायन जी महाभारत के अगले प्रसंग की ओर बढ़ चले.
पहला भाग : कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश
दूसरा भाग : राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?
पांचवा भाग : कैसे हुई थी राजा परीक्षित की मृत्यु? क्या मिला था श्राप जिसके कारण हुआ भयानक नाग यज्ञ
छठा भाग : महाभारत कथाः नागों के रक्षक, सर्पों को यज्ञ से बचाने वाले बाल मुनि… कौन हैं ‘आस्तीक महाराज’, जिन्होंने रुकवाया था जनमेजय का नागयज्ञ
सातवाँ भाग : महाभारत कथाः तक्षक नाग की प्राण रक्षा, सर्पों का बचाव… बाल मुनि आस्तीक ने राजा जनमेजय से कैसे रुकवाया नागयज्ञ