महाभारत की कथा में भगवान श्रीकृष्ण का जिक्र इस कथा के महानायक के तौर पर आता है. हालांकि संपूर्ण महाभारत को देखें तो इस महाकाव्य में किरदार के तौर पर वह बहुत बाद में शामिल होते हैं. इस कथा में सिर्फ श्रीकृष्ण ही भगवान विष्णु के अवतार नहीं थे, बल्कि महाभारत में शामिल कई किरदार किसी न किसी देवता के अंश से उत्पन्न हुए थे. देवताओं को ये अंशावतार भी इसलिए लेने पड़े थे, क्योंकि असुरों और राक्षसों ने मनुष्यों के रूप में जन्म लेकर उत्पात मचाना शुरू कर दिया था.
इन्हीं राक्षसों के अत्याचारों से पृथ्वी पर बढ़े भार को कम करने और संतुलन स्थापित करने के लिए ही द्वापरयुग में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण रूप में अवतार लिया था. नैमिषारण्य में महाभारत की कथा के व्याख्यान को आगे बढ़ाते हुए उग्रश्रवा जी ऋषियों से कहते हैं कि, राजा जन्मेजय ने ऋषि वैशंपायन जी से महामुनि वेदव्यास के दिव्य जन्म की कथा सुनीं तो आश्चर्य में भर गए.
उन्होंने कहा- हे व्यास शिष्य वैशंपायन जी! अब मेरी इच्छा है कि आप मुझे मेरे सभी पूर्वजों के जन्म का रहस्य बताएं और उनके भी जन्म की कथा सुनाएं, जिनकी इस महान दिव्य कथा में कुछ न कुछ भूमिका रही थी.
मैं जानना चाहता हूं कि कौरव कुल के श्रेष्ठ और रत्न मेरे महान पूर्वज भीष्म पितामह कौन थे? उनकी जो भी कथा सुनी है, वह साधारण मनुष्य तो नहीं लगते हैं. महात्मा विदुर भी असाधारण ही लगते हैं. उनका जन्म कैसे हुआ और इसके अलावा मेरे पितामह अभिमन्यु, उनके पिता अर्जुन और खुद महाराज युधिष्ठिर कौन थे?
राजा जन्मेजय से इस तरह के अचरज भरे प्रश्नों को सुनकर वैशंपायन जी बोले- आपने उत्तम प्रश्न किया है राजन! बल्कि यह प्रश्न सटीक इसलिए भी है, क्योंकि इन महापुरुषों-महानारियों के जन्म का विवरण केवल आश्चर्य से भरी कथा नहीं, बल्कि जीवन के लिए प्रेरणादायी प्रेरक प्रसंग भी है. इसका श्रवण करके मनन और चिंतन जरूर करना चाहिए. अब मैं आपको आपके पूर्वजों की जन्मकथा कहता हूं.
वैशंपायन जी ने कथा शुरू किया. राजन- भगवान परशुराम ने अपने काल में 21 बार क्षत्रियों का संहार किया था. इसके बाद वह महेंद्र पर्वत तपस्या करने चले गए. फिर क्षत्रिय कुलभूषण, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के रूप में श्रीभगवान ने अवतार लिया और उन्होंने क्षत्रियों सहित मानव समाज के मर्यादा न सिर्फ तय की, बल्कि उसे अपने आचरण से सिद्ध भी किया. इस तरह धरती पर सुख का काल रहा. वर्षा समय पर होती, सभी ऋतुएं अपना पूर्ण फल देतीं और असंतोष, अकाल, दुर्भिक्ष जैसी आपदाएं कहीं नहीं रह गई थीं. जिस समय सभी ओर आनंद छा रहा था, क्षत्रिय कुलों में एक बार फिर ‘राक्षस’ उत्पन्न होने लगे. उस समय देवताओं ने दैत्यों को युद्ध में बार-बार हराया था. इस तरह ऐश्वर्य से चूके दैत्यों ने न सिर्फ मनुष्यों में, बल्कि, गधों-घोड़ों, बैलों और भैंसों समेत मृगों में भी उत्पन्न हो लगे. पृथ्वी इनके भार से त्रस्त होने लगी.
तब एक दिन धरती ने गाय का रूप धारण किया और छिपते-छिपाते ब्रह्माजी के पास गईं और उन्हें सारा हाल कह सुनाया. ब्रह्माजी ने पृथ्वी को आश्वासन दिया कि मैं देवताओं को तुम्हारे भार हरण के निमित्त नियुक्त करूंगा. इसके बाद ब्रह्माजी ने सभी देवताओं को आज्ञा दी कि तुम सभी अपने-अपने अंशों से पृथ्वी पर अवतार लो. इसके बाद गंधर्व और अप्सराओं को भी आदेश दिया कि तुम भी अपने अंश से जन्म लो.
फिर ब्रह्माजी ने देवताओं को साथ लिया और वैकुंठ की यात्रा की. वहां भगवान नारायण श्री को धारण करने वाले, चक्र, पद्म और गदा से सुशोभित, पीले सुसज्जित वस्त्र धारण करने वाले और अभय देने वाले हैं. उन्होंने देवताओं के आने का प्रयोजन समझ लिया और फिर कहा- पृथ्वी को आश्वासन दीजिए कि वह जिस रूप में आई थी, मैं उसे धन्य करूंगा और स्वयं को धन्य समझूंगा.
मैं गोविंद और गोपाल कहलाऊंगा और बाल्यकाल से ही देवी पृथ्वी के भार को कम करूंगा. धर्म की स्थापना करूंगा. सभी देवता मेरे धर्म स्थापना के कार्य के निमित्त ही अपने अंश से जन्म लेंगे और मेरी सहायता करेंगे. इसके बाद श्री भगवान की आज्ञा से देवताओं, गंधर्वों और अप्सराओं ने भी जन्म लेना शुरू किया. कुछ ने तुरंत ही ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों के वंशों में जन्म लेकर इस निमित्त अपने योगदान की शुरुआत भी कर दी.
यह वृतांत बताकर वैशंपायन जी रुके और फिर कहा- महाराज जनमेजय! अब मैं आपको बताता हूं कि किस-किस देवता, गंधर्व और अन्य विभूतियों ने आपके किस पूर्वज के रूप में अवतार लिया. इसके लिए आप सबसे पहले अपने पूर्वज महात्मा विदुर जी और कठिन व्रतधारी पितामह भीष्म के पूर्वजन्म की कथा सुनिए. पूर्व काल की बात है सभी वेदों के ज्ञाता, महान यशस्वी, पुरातन मुनि, ब्रह्मर्षि भगवान मांडव्य नाम के एक ऋषि थे. उन्होंने अपनी कठिन साधना के क्रम में मौन व्रत धारण किया था. जिस राज्य में उनका आश्रम था, एक दिन वहां के राजमहल में चोरी हो गई. राजा के सैनिकों ने चोरों का पीछा किया तो चोर राज्य के बाहर स्थित मांडव्य ऋषि के आश्रम में ही जा घुसे और लूट का माल भी वहीं छिपा दिया.
इधर राज्य के सैनिक जब ऋषि के आश्रम में पहुंचे तब ऋषि का मौनव्रत था. सैनिकों ने उनसे चोरों के बारे में पूछा, लेकिन ऋषि ने कोई उत्तर नहीं दिया. सैनिकों को खोजबीन में चोरी का माल भी आश्रम से मिला तो ऋषि को भी चोरों से मिला हुआ समझकर उन्हें भी अपराधी की तरह उठा लाए और दरबार में पेश किया. अब चूंकि ऋषि मौन तपस्या में थे इसलिए उन्होंने राजा के भी किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया. तब राजा ने उनके इस मौन को अपराध की स्वीकृति समझकर उन्हें भी अन्य चोरों सहित शूली पर चढ़ा देने का आदेश दे दिया. शूली एक ऊंचा नुकीला, कांदेदार स्तंभ होता था. जिसके बाहर ऊंचाई पर एक मंच बनाकर अपराधी को उसकी नोक पर बैठा दिया जाता था.
वह शूल अपराधियों के भीतर धंस जाता था और उनकी मृत्यु हो जाती थी. चोरों सहित ऋषि मांडव्य भी शूली पर चढ़ा दिए गए. चोरों की तो तुरंत मृत्यु हो गई, लेकिन ऋषि मांडव्य अपने तपोबल से शूल पर ही कई दिनों तक बैठे रहे. राजा ने यह दृश्य देखा तो उसे अपराध बोध हुआ और उन्हें कई दिनों बाद शूली से उतारकर क्षमा याचना की. ऋषि ने भी राजन को क्षमा कर दिया, लेकिन वह इस बात से परेशान हो उठे कि मैंने कब कौन सा इतना बड़ा पाप किया था, जिसका कर्मदंड मुझे इस रूप में मिला?
यह जिज्ञासा लिए हुए ऋषि मांडव्य ने स्वर्गलोक की यात्रा की सीधे धर्मराज-यमराज के पास पहुंचे. यहां उन्होंने धर्म को संबोधित करते हुए पूछा- हे धर्म, हे न्याय, हे व्यवस्थापालक और नर्क में जाने वाले प्राणियों के लिए यमराज. मैं आपसे ये जानने आया हूं कि किस पाप के कारण मुझे राजदंड के रूप में शूली पर चढ़ने का फल भोगना पड़ा.
तब धर्मराज ने कहा- आप याद कीजिए, जब आप सात वर्ष के बालक थे, तब आपने यूं ही खेल-खेल में एक कीड़े के शरीर को कांटे से बेध दिया था. इसी पाप के कारण आपको शूली पर चढ़ना पड़ा. तब ऋषि मांडव्य ने कहा- हे धर्म! ये तो अन्याय है. मैं तब बालक था, मूर्ख था. धर्म-अधर्म नहीं जानता था. तुमने मेरे बालपन को अपराध बताकर अन्याय किया है. 12 वर्ष तक बालक अबोध होते हैं, उन्हें पाप और पुण्य की तुला (तराजू) से अलग रखना चाहिए.
मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम जिस तरह स्वर्ग में धर्मराज और यमराज हो, मृत्युलोक में भी अपने अलग-अलग अंश से जन्म लोगे. तुम शूद्र माता के गर्भ से जन्म लोगे और जीवन भर न्याय-अन्याय में फंसे रहोगे. अन्याय होते देखोगे, सहन करोगे, उसे रोकने की कोशिश करोगे, लेकिन विफल रहोगे. इस बाद भी तुम्हारी बुद्धि धर्म में स्थिर रहेगी. वैशंपायन जी बोले- मांडव्य ऋषि के इसी श्राप के कारण धर्मराज ने आपके पूर्वज महात्मा विदुर के रूप में जन्म लिया. उनकी माता, महाराज विचित्रवीर्य की पत्नी अंबिका और अंबालिका की दासी थीं. महात्मा विदुर अपनी नीतियों, न्यायप्रियता के कारण संसार में प्रसिद्ध हैं. विदुर नीति शास्त्रों में नीतियों का एक प्रमुख ग्रंथ है.
धर्मराज के ही दूसरे अंश यम से पृथ्वीलोक में आपके पूर्वज महाराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ था. उन्हें भी श्राप के कारण जीवन भर अन्याय सहना पड़ा, लेकिन वह धर्म से नहीं डिगे. इसलिए वह स्वयं धर्म के प्रतीक कहलाए. युद्ध में भी उनकी बुद्धि स्थिर रहने के कारण ही उनका युधिष्ठिर नाम सार्थक रहा. उन्होंने महाभारत का युद्ध जीतकर हस्तिनापुर का सिंहासन जीता और चक्रवर्ती सम्राट बनकर पृथ्वीपति कहलाए.
विदुर जी की जन्मकथा सुनाकर वैशंपायन जी ने कहा- राजन अब आप अपने पूर्वज कौरव कुलभूषण भीष्म जी की कथा सुनो. अमित तेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म आठवें वसु के अंश से गंगाजी के गर्भ से उत्पन्न हुए. वे महान पराक्रमी और यशस्वी थे, लेकिन उनके जन्म की वजह उनके पूर्वजन्म का एक श्राप था. प्राचीन काल में वरुण के पुत्र महर्षि वशिष्ठ आपव नाम से विख्यात हुए थे. उनके आश्रम में सुरभि नामकी दिव्य गाय की पुत्री कामधेनु रहती थी, जो सारी कामनाओं की पूर्ति करती थी. एक बार उस वन में अष्टवसु अपनी स्त्रियों के साथ विहार के लिए पहुंचे हुए थे. तभी उन वसुओं में से सबसे छोटे द्यौ नाम के वसु की पत्नी ने कामधेनु नंदिनी गाय को वन में विचरण करते हुए देखा.
वह सींगों से सुंदर, धवल (सफेद) रंग वाली और पुष्ट गाय को देखकर वसु पत्नी ने इस गाय के बारे में पूछा. द्यो वसु ने बताया कि, यह दिव्य गाय महर्षि वशिष्ठ की है. जो मनुष्य इसके स्वादिष्ट दुग्ध का पान करेगा, वह दस हजार वर्षों तक जीवित रहेगा और उतने ही समय तक युवावस्था में स्थिर रहेगा. यह सुनकर उस देवी ने अपने पति से कहा – हे प्राणनाथ ! मृत्युलोक में जितवती नाम की एक राजकुमारी मेरी सखी है. वह सुंदर और युवा हैं और राजर्षि उशीनर की पुत्री हैं. मैं उसी के लिए बछड़े सहित यह गाय लेना चाहती हूं. इस दिव्य गाय को आप ले आइये. जिससे मेरी वह सखी जरा, रोग और व्याधि से बची रह सके. अपनी पत्नी के ऐसे वचन सुनकर द्यौ नाम के उस वसु ने अपने भाई पृथु आदि को बुलाकर उनकी सहायता से बिना कुछ सोचे-समझे नंदिनी गाय का अपहरण कर लिया.
इधर कुछ समय बाद महर्षि वशिष्ठ संध्या वंदन करके कंदमूल लेकर आश्रम पर आए. जब उन्होंने अपनी प्रिय नंदिनी गाय को कहीं नहीं देखा तो वह उसकी खोज करने लगे. बहुत खोजने पर भी महर्षि को जब वह गाय नहीं मिली तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखा. तब उन्हें पता चला कि मेरी कामधेनु का अपहरण वसुओं ने किया है. यह देखते ही उन्होंने कुपित होकर तत्काल वसुओं को शाप दे दिया कि “ जिन वसुओं ने मेरी गाय का अपहरण किया है, वे सबके सब मनुष्य योनि में जन्म लेंगे.’
जब वसुओं को यह पता चला कि महर्षि वशिष्ठ ने उनको शाप दे दिया है तो वह सबके सब उनके आश्रम पर पहुंच गए. उन्होंने महर्षि को प्रसन्न करने की खूब कोशिश की, लेकिन महर्षि नहीं पिघले. तब उन्होंने शाप से मुक्त होने का उपाय पूछा तब महर्षि बोले – ‘मैंने तुम सबको शाप दिया है लेकिन तुमलोग तो एक–एक करके एक वर्ष के भीतर ही शाप से मुक्त हो जाओगे. यह द्यौ नाम का जो वसु है, जिसके कारण तुम सबको शाप मिला है. यह दीर्घकाल तक मनुष्यलोक में निवास करेगा. यह बहुत पराक्रमी होगा, धर्म में दृढ़ रहेगा और इसके कठिन व्रत के उदाहरण दिए जाएंगे, लेकिन इसका चोरी का पाप, इस पर जीवन भर हावी रहेगा. यह हमेशा अपने सामने धर्म को चोरों द्वारा लुटता हुआ देखेगा. ऋषि वैशंपायन बोले- आपके यही पूर्वज पितामह भीष्म द्यौ नामके वसु थे, जिनका सारा जीवन ही एक तपस्या था और वह कुरुकुल के पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए.
अब मैं आपको बताता हूं कि इस कथा के अन्य लोगों का जन्म किन-किन देवताओं और गंधर्वों के अंश से हुआ था. राजा कुन्तिभोज की कन्या कुन्ती के गर्भ से सूर्य के अंश से महाबली कर्ण की उत्पत्ति हुई. वह बालक जन्म के साथ ही कवचधारी था. उस मुख शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए कुण्डल की प्रभा से प्रकाशित होता था. भगवान विष्णु जगत की जीवों पर अनुग्रह करने के लिये वसुदेवजी के द्वारा देवकी के गर्भ से प्रकट हुए.
उन्होंने ने धर्म की वृद्वि के लिये अन्धक और वृष्णि कुल में श्रीकृष्ण रूप में अवतार लिया था. बलराम उनके बड़े भाई, शेषनाग के अवतार थे, लेकिन दोनों को भगवान का एक ही रूप समझना चाहिए. सत्य से सात्यकि और हृदिक से कृतवर्मा का जन्म हुआ था. वे दोनों अस्त्र विद्या में अत्यन्त निपुण और भगवान श्रीकृष्ण के अनुगामी थे. एक समय उग्र तपस्वी महर्षि भारद्वाज का वीर्य किसी द्रोणी (पर्वत की गुफा) में स्खलित होकर धीरे-धीरे पुष्ट होने लगा. उसी से द्रोण का जन्म हुआ. भारद्वाज वंशी आचार्य द्रोण के रूप में देवगुरु बृहस्पति ही अंश लेकर जन्मे थे.
किसी समय गौतम गोत्रीय शरद्वान का वीर्य सरकंडे के समूह पर गिरा और दो भागों में बंट गया. उसी से एक कन्या और एक पुत्र का जन्म हुआ. कन्या का नाम कृपि था, जो अश्वत्थामा की माता और द्रोणाचार्य की पत्नी हुईं. उनके ही भाई कृपाचार्य नाम से विख्यात हुए जो कौरव कुल के कुलगुरु थे. यज्ञ कर्म का अनुष्ठान करते समय प्रज्वलित अग्नि से धृष्टद्युम्न उत्पन्न हुआ. उसी यज्ञ की वेदी से शुभस्वरूपा तेजस्विनी द्रौपदी उत्पन्न हुईं.
प्रहलाद का शिष्य नग्नजित राजा सुबल के रूप में जन्मा. देवताओं के कोप से उसकी संतान (शकुनि) धर्म का नाश करने वाली हुई. सुबल की पुत्री गांधारी ही दुर्योधन की माता थी. महाराज पाण्डु के देवी कुंती और माद्री से पांच पुत्र उत्पन्न हुये. युधिष्ठिर धर्म से जो मैंने पहले भी बताया था. भीमसेन वायु देवता से, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन इन्द्र देव से और सुंदर रूप वाले नकुल और सहदेव अश्विनी कुमारों उत्पन्न हुए थे. वे जुड़वां ही जन्मे थे. धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए. इनके युयुत्सु भी एक दासी से उन्हीं का पुत्र था. भरतवंशी जनमेजय ! धृतराष्ट्र के पुत्रों में दुर्योधन, दुःशासन, दुःसह, दुर्मर्षण, विकर्ण, चित्रसेन, विविंशति, जय, सत्यव्रत, पुरूमित्र तथा युयुत्सु- ये ग्यारह महारथी थे.
अर्जुन द्वारा सुभद्रा के गर्भ से आपके पितामह अभिमन्यु का जन्म हुआ. वह महात्मा पाण्डु के पौत्र और भगवान श्रीकृष्ण के भांजे थे. पाण्डवों द्वारा द्रौपदी के गर्भ से पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो बड़े ही सुंदर और शास्त्रों में निपुण थे. युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक और सहदेव से प्रतापी श्रुतसेन का जन्म हुआ था. भीमसेन के द्वारा हिडम्बा से वन में घटोत्कच नाम का पुत्र पैदा हुआ.
आचार्य द्रोण के यहां महादेव, यम, काम और क्रोध के सम्मिलित अंश से शूरवीर अश्वत्थामा का जन्म हुआ था. आचार्य कृप का जन्म रुद्रगणों के अंश से हुआ था. महारथी गांधार राज सुबल के पुत्र के रूप में शकुनि ने जन्म लिया. वह द्वापर के अंश से उत्पन्न हुआ था. सात्यिक मरूत देवताओं के अंश से उत्पन्न हुए थे. राजा द्रुपद, कृतवर्मा, राजा विराट ये सभी मरुद्गणों से ही उत्पन्न हुए थे.
अरिष्टा का पुत्र जो हंस नाम से विख्यात गन्धर्व राज था, वहीं कुरुवंश की वृद्वि करने वाले व्यासनन्दन धृतराष्ट्र के रूप में जन्मे. उन्हीं के छोटे भाई महान शक्तिशाली महाबली पाण्डु का जन्म हुआ. खोटी बुद्वि और दूषित विचार वाले कुरुकुल कलंक राजा दुर्योधन के रूप में इस पृथ्वी पर कलि का अंश ही उत्पन्न हुआ था. पुलस्त्य कुल के राक्षस भी मनुष्यों में दुर्योधन के भाइयों के रूप में उत्पन्न हुए थे. हे भरतश्रेष्ठ जनमेजय! धृतराष्ट्र के सभी पुत्र पूर्व जन्म के राक्षस थे.
जनमेजय ने कहा- प्रभु ! धृतराष्ट्र के जो सौ पुत्र थे, उनके नाम मुझे बड़े-छोटे के क्रम से एक-एक करके बताइये.
वैशंपायनजी बोले – राजन् ! सुनो –
1. दुर्योधन, 2. युयुत्सु, 3. दुःशासन, 4. दुःसह, 5. दु:शल, 6. दुर्मुख, 7. विविंशति, 8. विकर्ण, 9. जलसंध, 10. सुलोचन, 11. विन्द, 12. अनुविन्द, 13. दुर्धर्ष, 14. सुवाहु, 15. दुष्प्रधर्षण, 16. दुभर्षण, 17. दुर्मुख, 18. दुष्कर्ण, 19. कर्ण, 20. चित्र, 21. उपचित्र, 22. चित्राक्ष, 23. चारू, 24. चित्रांगद, 25. दुर्मद, 26. दुष्पधर्ष, 27. विवित्सु, 28. विकट, 29. सम, 30. ऊर्णनाभ, 31. पद्यनाभ, 32. नन्द, 33. उपनन्द, 34. सेनापति, 35. सुषेण, 36. कुण्डोदर, 37. महोदर, 38. चित्रवाहु, 39. चित्रवर्मा, 40. सुवर्मा, 41. दुर्विरोचन, 42. अयोबाहु, 43. महाबाहु, 44. चित्रचाक, 45. सुकुण्डल, 46. भीमवेग, 47. भीमबल, 48. बलाकी, 49. भीम
50. विक्रम, 51. उग्रायुध, 52. भीमसर, 53. कनकायु, 54. धड़ायुध, 55. दृढवर्मा, 56. दृढक्षत्र, 57. सोमकीर्ति, 58. अनुदर, 59. जरासंध, 60. दृढसंध, 61. सत्यसंध, 62. सहस्त्रवाक, 63. उग्रश्रवा, 64. उग्रसेन, 65. क्षेममूर्ति, 66. अपराजित, 67. पण्डितक, 68. विशालाक्ष, 69. दुराधन, 70. दृढहस्थ, 71. सुहस्थ, 72. वातवेग, 73. सुवर्चा, 74. आदित्यकेतु, 75. बहाशी
76. नागदत्त, 77. अनुयायी, 78. कबची, 79. निसंगी, 80. दण्डी, 81. दण्डधार, 82. धर्नुग्रह, 83. उग्र, 84. भीमरथ, 85. वीर, 86. वीरबाहु, 87. अलोलोप, 88. अभय, 89. रौद्रकर्मा, 90. दृढरथ, 91. अनाधृष्य, 92. कुण्डभेदी, 93. विरावी, 94. दीर्घलोचन, 95. दीर्घबाहु, 96. महाबाहु, 97. व्यूढोरू, 98. कनकांगद, 99. कुण्डज, 100. चित्रक
ये धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे. इनके सिवा दुःशला नाम की एक कन्या थी. धृतराष्ट्र का वह पुत्र जिसका नाम युयुत्सु था वह एक दासी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था. वह दुर्योधन आदि सौ पुत्रों से अलग था. इस प्रकार धृतराष्ट्र के एक सौ एक पुत्र और एक कन्या थी.
वर्चा नाम से विख्यात चन्द्रमा का प्रतापी पुत्र ही महायशस्वी अर्जुन कुमार अभिमन्यु हुआ था. जनमेजय ! उनके अवतार काल में चन्द्रमा ने देवताओं से कहा -‘मेरा पुत्र मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है, अतः मैं इसे अधिक दिनों के लिए पृथ्वी पर नहीं भेज सकता हूं. इसलिये मृत्युलोक में इसके रहने की कोई अवधि निश्चित कर दी जाए. ‘पृथ्वी पर असुरों का वध करना देवताओं का कार्य है और वह हम सबके लिये करने योग्य है. इसलिए वर्चा वहां जाएगा, लेकिन बहुत समय के लिए नहीं. युद्ध में पूरा एक दिन उसके नाम रहेगा.
वह पराक्रम से युद्ध करके सूर्यास्त में मुझसे आ मिलेगा. उसकी संतान ही कुरुकुल का यशस्वी वंश बढ़ाएगी और राज भी करेगी. हे महाराज जनमेजय आप उन्हीं चंद्रमा अवतारी पराक्रमी अभिमन्यु की वंशबेल से हैं. आपके पिता परीक्षित उन्हीं दिव्यात्मा के पुत्र थे और चंद्रदेव के कारण ही आप लोग हस्तिनापुर के इस यशस्वी राज्य के अधिकारी हैं. जन्मेजय अपने पूर्वजों का यह वृतांत सुनकर आश्चचर्य से भर गया और फिर उसने अपने कुलदेवता चंद्रदेव को प्रणाम किया. वैशंपायन जी कथा के अगले प्रसंग सुनाने की तैयारी में लग गए.
पहला भाग : कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश
दूसरा भाग : राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?
पांचवा भाग : कैसे हुई थी राजा परीक्षित की मृत्यु? क्या मिला था श्राप जिसके कारण हुआ भयानक नाग यज्ञ
छठा भाग : महाभारत कथाः नागों के रक्षक, सर्पों को यज्ञ से बचाने वाले बाल मुनि… कौन हैं ‘आस्तीक महाराज’, जिन्होंने रुकवाया था जनमेजय का नागयज्ञ
सातवाँ भाग : महाभारत कथाः तक्षक नाग की प्राण रक्षा, सर्पों का बचाव… बाल मुनि आस्तीक ने राजा जनमेजय से कैसे रुकवाया नागयज
आठवाँ भाग : महाभारत कथा- मछली के पेट से हुआ सत्यवती का जन्म, कौन थीं महर्षि वेद व्यास की माता?