कहानी जमशेद Kahani Jamshed Neelesh Misra – मुखर्जी बाबू की डायरी | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी – मुखर्जी बाबू की डायरी | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

कहानी जमशेद Kahani Jamshed Neelesh Misra – मुखर्जी बाबू की डायरी | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी – मुखर्जी बाबू की डायरी | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

मुखर्जी बाबू की डायरी 

 

कई रोज़ की मुसलसल मस्रूफ़ियतों के बाद वर्मा एशियाटिक कम्पनी के असिस्टेंट डायरेक्टर मुखर्जी बाबू को एक शाम ज़रा फुर्सत नसीब हुई तो उन्होंने सोचा कि इसे यूँ ही नहीं गँवाना चाहिए। लंदन की एक पतली सी गली में, जो पिकाडिली सर्कस के करीब ही थी, वहीं एक पुराने मकान की चौथी मंज़िल पर मुखर्जी बाबू का एक छोटा सा दफ़्तर था। दफ़्तर क्या था, एक छोटा सा बेड-सिटिंग रूम था जहां दो-तीन छोटी-छोटी मेज़, कुर्सियों, टाइपराइटर, टेलीफ़ोन और फ़ाइलों की भरमार से सजाया गया था।

उस दिन मुखर्जी बाबू दफ़्तर में अकेले ही थे, क्योंकि डायरेक्टर पिछले रोज़ पेरिस के हफ़्ते भर के दौरे पर चला गया था और टाइपिस्ट का काम करने वाली लड़की ने दाँत के दर्द की वजह से छुट्टी ले ली थी। लिहाज़ा आज वो काफी आज़ाद महसूस कर रहे थे। मुखर्जी बाबू ने कुर्सी पर बैठे बैठे दोनों हाथ ऊपर उठा कर एक कसी हुई अंगड़ाई ली और फिर मेज़ की दराज़ से एक डायरी निकाली। डायरी देखकर उनके चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कुराहट आई। मुखर्जी बाबू शौकीन मिज़ाज आदमी थी। खूबसूरत औरतों के आसपास रहना उन्हें अच्छा लगता था। हालांकि दामन पाकसाफ था उनका, बस खूबसूरत औरतों की निस्बत अच्छी लगती थी उन्हें। ये दिलचस्प डायरी उसी का सबूत थी। डायरी में लिखा क्या था बताने से पहले थोड़ा मुखर्जी बाबू को जान लीजिए। फिर डायरी पर चलेंगे।

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तो साहब…. मुखर्जी बाबू को लंदन आए पंद्रह बरस से ज़्यादा का अरसा हो चुका था। खाते-पीते घराने से ताल्लुक रखते थे। बाप ने इंजीनियरी की तालीम के लिए भेजा था मगर तालीम पूरी न हुई थी कि जंग छिड़ गई। उन्होंने इंजीनियरी को तो ख़ैरबाद कहा और छोटी-मोटी नौकरी करने लगे। इसी दौरान बाप का इंतक़ाल हो गया। बड़े मुखर्जी ने कुछ ज़्यादा जायदाद नहीं छोड़ी थी और हक़दार कई थे चार तो बेटे ही थे। तो उन्होंने वतन लौटना ज़्यादा मुफ़ीद न समझा और रोज़ी कमाने के लिए यहीं हाथ-पाँव मारने लगे। नौकरी में तनखाह कम थी तो उन्होंने एक के बाद एक कुछ कारोबार किये मगर काम न चला। आख़िर एक हमवतन भाई के साथ मिलकर एक कंपनी खोल ली इंपोर्ट-एक्सपोर्ट की। इस काम में ख़ासी कामयाबी हुई और फिर वो यहीं के हो के रह गए।

मुखर्जी बाबू काफ़ी भारी-भरकम ख़ुश वज़ा आदमी थे। ठंडे मुल्क में अरसे की रहन-सहन से उनका सांवला रंग निखर आया था। चालीस के करीब उम्र थी। कनपटियों पर बाल सफ़ेद होना शुरू कर चुके थे मगर इसके बावजूद चेहरे पर जवानों सी ताज़गी थी। आँखें हमेशा मुस्कुराती रहतीं। उन्होंने पश्चिमी तौर-तरीकों और आदतों को बहुत ग़ौर से समझा था। अलावा इसके उनके मेलजोल में एक कारोबारी बेलागपन भी होता था। इन्हीं ख़ूबियों की वजह से लंदन के निचले मिडिलक्लास तबक़ों में उनकी बड़ी आवभगत होती थी।

तो ख़ैर, उस दिन दफ्तर में अकेल बैठे मुखर्जी बाबू ने कुर्सी पर बैठे-बैठे खुली खिड़की से बाहर नज़र दौड़ाई। गिरजाघर की शिखर के पीछे धुँधला सा आसमान नज़र आ रहा था। यह जुलाई की एक निस्बतन गर्म दोपहर थी। सुबह सूरज अच्छी तरह निकला था मगर बारह बजते-बजते बादल घिर आए थे जो अब छँटने लगे थे। यानी मौसम की तरफ़ से ज़्यादा ख़तरा न था और एक दिलचस्प शाम गुज़ारने की उम्मीद की जा सकती थी।

लंदन में सिनेमा, थिएटर और संगीत की महफ़िलों को छोड़ कर तमाम तरह की तफ़रीह के बीसियों और ज़रिये हैं, जो नयापन, रोमांस, ऐशपरस्ती और महँगाई के मुख़्तलिफ़ दर्जे रखते हैं। इनमें से कुछ बहुत महँगे हैं और उनके नतीजे खतरनाक हो सकते हैं।मिसाल के तौर पर मेफ़ेयर के किसी क्लब को रौनक़ बख़्शना और किसी परी को शीशे में उतारने की कोशिश करना और कुछ बिलकुल मासूम, जिन पर कुछ भी ख़र्च नहीं आता। जैसे ट्राफ़लगर स्क्वायर में कबूतरों को दाना खिलाना या भीड़भाड़ के वक़्त ख़ुद को लंदन की ट्यूब में गुम कर देना। मुखर्जी बाबू का तफ़रीह का तरीक़ा औरों से कुछ अलग था। वह पहले किसी ऐसे शख्स से मुलाक़ात तय करते थे जिसके शौक उनसे मिलते जुलते हों और फिर बाक़ी प्रोग्राम उसी की मर्ज़ी पर छोड़ देते थे। तो आज भी उन्होंने यही करने का फ़ैसला किया।

उन्होंने मेज़ की दराज़ से एक पुरानी स्याह जिल्द वाली किताब नुमा डायरी निकाली और उसके पन्ने पलटने लगे। ये डायरी उन्होंने खुद बनाई थी। डायरी के किनारे अंग्रेज़ी के अक्षर लिखे थे और उन्हीं के मुताबिक़ वह मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बँटी हुई थी। इस पंद्रह साल के अरसे में जो उन्होंने लंदन और उसके आसपास गुज़ारा था, उनकी मुलाक़ात जिन जिन औरतों से बल्कि यूं कहें कि खूबसूरत औरतों से हुई वो उन्हें याद थी। कई दिलचस्प हस्तियां भी थी जिनके नाम-पते, टेलीफ़ोन नंबर, पहली मुलाक़ात का हाल और कई और ज़रूरी व कारआमद बातें इस डायरी में दर्ज थीं। यह डायरी उनकी बरसों की साथी थी और जब भी थोड़ा तफरीह वगैरह का वक्त मिलता था, ये बहुत काम आती थी।

मुखर्जी बाबू ने डायरी उठाई और सबसे पहले A वाले हिस्से पर गए। जो पहला नाम नज़र आया वो था ऐडम्स मिस पैट्रिशिया ऐडम्स। उसके नीचे पता और टेलीफ़ोन नंबर के बाद ये बातें याददाश्त के तौर पर लिखी थीं: वो बातें यूं थी –

स्कॉटलैंड की रहने वाली, उम्र सत्ताईस बरस। रेड क्रॉस के दफ़्तर में सेक्रेटरी। चाँदी जैसे बाल, लंबा क़द, दाँत ख़राब, वादे की पाबंद, सिर्फ़ शैरी पीती है। पहली मुलाक़ात हैम्पटन कोर्ट में। दो घंटे की तफ़रीह जिसमें हिंदुस्तानी खाना शामिल है। कुल ख़र्च तीन पाउंड।”

मुखर्जी बाबू ने कुछ सोचा और फिर टेलीफ़ोन उठाया।

हैलो… क्या मैं मिस ऐडम्स से बात कर सकता हूँ… पेट्रिशिया एडेम्स? शुक्रिया… कुछ देर इंतज़ार किया फिर बोले… हेलो पेट, कहो कैसी हो? मुद्दत से मुलाक़ात नहीं हुई, कहो चोट का क्या हाल है। कौन सी चोट? अरे भूल गईं? उस दिन सर्पेंटाइन में कश्ती चलाते चोट लग गई थी न कोहनी में…! अब याद आया? अच्छी हो गई? मुझे सुन कर ख़ुशी हुई। सुनो, आज शाम फ़ारिग़ हो…? नहीं…? अरे ये क्यों…? सर में दर्द है? ख़ैर, तो न सही। मैंने सोचा था हम तुम इकट्ठे शाम गुज़ारेंगे। खाना भी साथ ही खाएँगे। ख़ैर, नहीं तो न सही… क्या कहा…? कल आ सकती हो? भई, कल शायद मुझे फ़ुर्सत न हो। बहरहाल, टेलीफ़ोन कर लेना… हाँ, मौसम बुरा नहीं, बादल छँट रहे हैं। अच्छा, ख़ुदा हाफ़िज़ पेट!”

में उन्हें जीन ऐंडरसन, शीला आर्नल्ड, रीटा एटकिनसन के नाम नज़र आए मगर नीचे जो पिछली मीटिंग में हुआ खर्चा लिखा था वो ज़्यादा था, तो पन्ने पलट दिये। बी पर रुके… मिस मार्जरी ब्लिस … हम्म् …. नज़र वहीं अटक कर रह गई।

डिस्क्रिप्शन उम्र बाईस बरस। क़ौमियत ख़ालिस अंग्रेज़, ब्रिटिश म्यूज़ियम में मुलाज़िम है। वहीं पहली मुलाक़ात हुई थी। सियाह चमकदार बाल, ख़ूबसूरत आँखें जो कभी नीली लगती हैं, कभी सब्ज़। अल्हड़ हसीना, ग़मगीन फ़िल्में देखने का शौक़, फ़िल्म देख कर रोती रहती है… रात को ईस्ट एंड की सैर की शौक़ीन। क्रीम द मोनी विशेष रूप से पसंद करती है। इसरार से जिन भी पी लेती है मगर बटर हरगिज़ नहीं पीती। आम तौर पर महँगी रहती है। जेब में ऐहतियातन पाँच पाउंड रखने चाहिए।

मुस्कुराए और फोन मिला दिया।

हेलो मार्जरी… कहो कैसी हो…? नहीं बताती…? बूझो तो जानें… अरे पगली, मैं हूँ तुम्हारा मको। मको नहीं समझती… अरे मुखर्जी …. अच्छा सुनो … आज शाम आ सकती हो…? क्या कहा? रिश्ता हो गया…? सगाई भी हो गई? अरे किसके साथ? अरे बता दो, हम नहीं बताएँगे किसी को। वो कौन ख़ुशक़िस्मत शख़्स है…? अच्छा न सही, लेकिन मुबारकबाद क़ुबूल कर लो… शादी के बाद मुझसे ज़रूर मिलवाना… हाँ, सुबह को सूरज निकला था बड़ा प्यारा प्यारा, फिर बादल छा गए। लो अब बादल फिर छँट रहे हैं। अच्छा माज, ख़ुदा हाफ़िज़, बहुत बहुत मुबारकबाद…”

मुखर्जी बाबू ने फोन रखा और दिल में बड़बड़ाए… , ठीक ही रहा खैर… क्योंकि जेब में तो सिर्फ़ तीन पाउंड और सात शिलिंग हैं… हुंह” फिर जेब से लाल कलम निकाली और उस पर कट्टम का निशान लगा दिया। अब के उन्होंने बीके बाक़ी और सी‘, ‘डी‘, ‘के तमाम नामों को छोड़ते हुए एफ़पर रुके और मेड मुआज़ेल सीमन फे ऐट के नाम के नीचे ये लिखा पैरा पढ़ने लगे:

फ्रांसीसी नसल, सुनहरे बाल, बड़ी-बड़ी आँखें, चंचल, मोटा जिस्म, हँसती है तो गाल में गड्ढा पड़ता है। मेडोवेल में एक अंग्रेज़ ख़ानदान के बच्चों की टीचर है। डी ऐप से पेरिस के सफ़र में मुलाक़ात हुई थी और उसने सेब खाने को दिया था। फ्रांसीसी अदब की तारीफ़ करो तो ख़ुश होती है। शैरी के साथ-साथ लाइट ऐल भी पी लेती है। हिंदुस्तानी सालन और पुलाव से लगाव है। वक़्त मुक़र्रर से आधा पौना घंटा ज़्यादा इंतज़ार कराती है मगर पहुँच जाती है। काफ़ी महँगी है।

महंगी पर थोड़ा रुके ज़रूर… लेकिन पिछली कॉल का गुस्सा था… तो जोश में फोन उठाया… जैसे कह अरे जो होगा देखा जाएगा। फोन मिलाया।

हेलो कौन सीमन तुम हो? भई शुकर है इस वक़्त तुम घर पर मिल गईं। कहो क्या कर रही हो आज शाम…? क्या कहा? पेरिस से बहन आई है और उसका मियाँ भी? तब तो तुम्हें बहुत मस्रूफ़ियत होगी। कहो तो मैं भी आ जाऊँ…? अरे तुम तो परेशान हो गईं… नहीं-नहीं, मैंने तो यूँ ही दिल्लगी से कहा था, फिर कभी सही। एलो सूरज निकल आया। मौसम बहुत सुहाना हो रहा है। ख़ुदा हाफ़िज़।”

इतनी नाकामियों के बाद भी क्या मजाल कि मुखर्जी बाबू के माथे पर शिकन तक पड़ी हो। जिन हरफ़ों के नामों पर क़िस्मत आज़माई किए बग़ैर वो आगे बढ़ गए थे अगर उन्हें छोड़ दिया जाए तो भी अभी डायरी में बेशुमार नाम बाक़ी थे।

मोनिका हेज़ल… उम्र २५ बरस, माँ इतालवी, बाप अंग्रेज़। नाइट्सब्रिज की एक कपड़ों की दुकान में मॉडल है। कुछ-कुछ पेंटिंग भी जानती है। काले बाल, काली आँखें, बिलकुल मशरिक़ी हुस्न का नमूना, ख़ुशमिज़ाज, बदला-संज, किसी बात पर इसरार नहीं करती। ज़्यादा ख़र्च नहीं कराती टोटनहम कोर्ट रोड के एक हब्शी डांस हॉल में मुलाक़ात हुई थी। तीन से चार तक टेलीफ़ोन के क़रीब रहती है। कम पैसे खर्च करवाती है। उन्होंने कलाई पर बँधी घड़ी पर नज़र डाली और फिर नंबर मिलाने लगे:

हेलो… हीयुड बेबी, पहचाना तुमने? मैं हूँ मैं! उस रात आख़िरी सिम्बा के बाद तुम अचानक कहाँ गुम हो गई थीं…? ओहो, माफ़ कीजिएगा मैडम। क्या मैं मिस मोनिका हेज़ल से बात नहीं कर रहा? मुझे ग़लती हुई मैडम, मैं सख़्त शर्मिंदा हूँ मैडम। क्या कहा आपने? मिस हेज़ल ने नौकरी छोड़ दी? आप उनकी जगह काम करती हैं? मैं अपनी ग़लती पर दोबारा माफ़ी मांगता हूँ। क्या फ़रमाया आपने? मैं दिलचस्प आदमी मालूम होता हूँ? अरे शुक्रिया, बहुत-बहुत शुक्रिया… हाँ-हाँ, शायद कभी मुलाक़ात हो जाए। जी ख़ुदा हाफ़िज़।”

टेलीफ़ोन बंद करके मकर्जी बाबू मुस्कुराए और दिल में कहने लगे, “लीजिए इन ख़ातून से आज ही मुलाक़ात हो सकती थी। बस ज़रा दावत देने की देर थी। मगर बिना जाने-पहचाने दावत देना शायद ठीक न रहता। अरे उससे मोनिका का पता तो पूछ ही लिया होता! फ़िलहाल इस नाम को ख़ारिज ही समझना चाहिए।”

वो हरफ़ जे‘, ‘केऔर एलके नामों से गुज़रते हुए एमके हिस्से में हेलन मग्गे खै के नाम के नीचे ये इबारत पढ़ने लगे:

उम्र छब्बीस बरस। स्कॉटलैंड की रहने वाली। मार्बल आर्च कॉर्नर हाउस में नौकर है। नीली आँखों के सिवा चेहरे में और कोई जाज़िबियत नहीं मगर जिस्म ख़ूब गुदाज़ है। शादी की बात करो तो नरम पड़ जाती है। घर बनाने की आरज़ू का बार-बार इज़हार। ज़्यादा मेलजोल ख़तरनाक।कम ख़र्च बाला-नशीन। दस शिलिंग भी पास हों तो शाम गुज़ारी जा सकती है। शाम को काम से वापस आ जाती है। घर पर टेलीफ़ोन करना चाहिए। लैंडलेडी से होशियार।

ये याददाश्त पढ़कर मकर्जी बाबू कुछ सोच में पड़ गए। मगर आख़िरकार उन्होंने नंबर मिला ही डाला: हेलो मैडम। क्या मैं मिस मग्गे खै से बात कर सकता हूँ? बड़ी नवाज़िश होगी। क्या फ़रमाया आपने? काम में मशग़ूल हैं, इस वक़्त नहीं मिल सकतीं? ख़ैर, कोई बात नहीं। मैं दोबारा टेलीफ़ोन कर लूँगा। आपको ज़हमत हुई, माफ़ी चाहता हूँ। शुक्रिया, बादल छँट रहे हैं, बहुत-बहुत शुक्रिया!”

लैंडलेडी के ठंडे लहजे से निजात पाकर मकर्जी बाबू ने इत्मीनान का साँस लिया। फिर दिल में कहने लगे, “अच्छा ही हुआ वो न मिली। वरना अपनी जानिब से तो मैंने ख़तरा मोल लेने में कोई कसर न उठा रखी थी।”

अब वो डायरी में हरफ़ टीके नामों की सैर कर रहे थे।

मिस नोरा ट्रैक… नीचे लिखा था – उम्र अट्ठाइस बरस। कैम्बडन टाउन के चॉकलेट फ़रोश की बेटी। कारोबार में बाप का हाथ बँटाती है। शक्ल सूरत से दुरुस्त मगर ज़रा ढल गई है। काल लगाई

हेलो, मेहरबानी करके ज़रा मिस नोरा ट्रैक से मिलवा दीजिए। अरे ये तुम ही हो। कहो क्या हाल है, मेरी आँखों की पुतली, मेरी राहत-ए-जाँ। मैंने आवाज़ तो पहचान ली थी मगर अभी-अभी एक ग़लती ऐसी हुई कि मुझे एहतेयात बरतनी पड़ी… क्या कहा? तुम ख़ुद मुझे टेलीफ़ोन करने की सोच रही थीं? सच? फिर तो मैं तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ। कहाँ मुलाक़ात हो? पिकाडिली ट्यूब स्टेशन पर? वक़्त, आलम के नक़्शे के सामने? बिलकुल ठीक! हाँ-हाँ, ठीक चार बजे। इस वक़्त तीन बज कर पैंतीस मिनट हुए हैं। बस, मैं भी टहलता-टहलता पंद्रह-बीस मिनट में वहीं पहुँच जाऊँगा, और फिर हम तुम प्रोग्राम बनाएँगे। वल्लाह, सच है दिल से दिल को राह होती है। ओह स्वीटहार्ट, तुम इस मिसाल को नहीं समझतीं। ये देसी मिसाल है। मैं आज तुम्हें इसका मतलब समझाऊँगा। देखो, बादल छँट गए हैं। प्यारा-प्यारा सुनहरा सूरज फिर निकल आया है। इंतज़ार न कराना… अच्छा ख़ुदा हाफ़िज़ मेरी जान!”

और मुख्रजी बाबू ने वहीं डायरी बंद कर दी। फिर एक लम्हा भी ज़ाया किए बग़ैर वो कुर्सी से उठे, खूँटी से हैट, मफ़लर और बारिश कोट उठाई और दफ़्तर से निकल पिकाडिली सर्कस को हो लिए।

 

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